कर्ण - अधर्मी, षड्यंत्रकारी और नीच

कर्ण - अधर्मी, षड्यंत्रकारी और नीच

आज एक अधर्मी कर्ण को बहुत महान बताया  जा रहा है. पता नहीं क्या क्या विशेषण लगाए जाते है... दानवीर वग़ैरा वगेरा। लेकिन स्वयं योगेश्वर श्री कृष्ण उसके बारे में क्या बताते है वह जानने की जरुरत है.

जब कर्ण के रथ का पहिया भूमि में फस जाता है तब वह अर्जुन और श्री कृष्ण को धर्म और युद्ध नियम की दुहाई देता है की मुझे थोड़ा समय चाहिए अपने रथ का पहिया निकाल ने के लिए.
तब योगेश्वर अच्युतम श्री कृष्ण उसे उसके कुकर्म याद दिलाते है और उसे कहते की आज तुजे धर्म की याद आ रही है?

मेने निचे वैसे के वैसे श्लोक के साथ लिखे है.



महाभारत कर्ण पर्व अध्याय 91


तमब्रवीद् वासुदेवो रथस्थो
राधेय दिष्ट्या स्मरसीह धर्मम् । प्रायेण नीचा व्यसनेषु मग्ना
निन्दन्ति दैवं कुकृतं न तु स्वम् ।। १ ।।

भगवान् श्रीकृष्णने कर्णसे कहा - ' राधानन्दन ! सौभाग्यकी बात है कि अब यहाँ तुम्हें धर्मकी याद आ रही है ! प्रायः यह देखनेमें आता है कि नीच मनुष्य विपत्तिमें पड़नेपर दैव की ही निन्दा करते हैं। अपने किये हुए कुकर्मोंकी नहीं ॥ १ ॥


यद् द्रौपदीमेकवस्त्रां सभाया-
मानाययेस्त्वं च सुयोधनश्च । दुःशासनः शकुनिः सौबलश्च
न ते कर्ण प्रत्यभात्तत्र धर्मः ।। २ ।।

'कर्ण! जब तुमने तथा दुर्योधन, दुःशासन और सुबलपुत्र शकुनिने एक वस्त्र धारण करनेवाली रजस्वला द्रौपदीको सभामें बुलवाया था, उस समय तुम्हारे मनमें धर्मका विचार नहीं उठा था ? ।। २ ॥


यदा सभायां राजानमनक्षज्ञं युधिष्ठिरम् ।
अजैषीच्छकुनिर्ज्ञानात् क्व ते धर्मस्तदा गतः ॥ ३ ॥

'जब कौरवसभामें जूएके खेलका ज्ञान न रखनेवाले राजा युधिष्ठिरको शकुनिने जान- बूझकर छलपूर्वक हराया था, उस समय तुम्हारा धर्म कहाँ चला गया था? ।। ३ ।। 


वनवासे व्यतीते च कर्ण वर्षे त्रयोदशे ।
न प्रयच्छसि यद् राज्यं क्व ते धर्मस्तदा गतः ॥ ४ ॥

'कर्ण! वनवासका तेरहवाँ वर्ष बीत जानेपर भी जब तुमने पाण्डवोंका राज्य उन्हें वापस नहीं दिया था, उस समय तुम्हारा धर्म कहाँ चला गया था? ।। ४ ।।


यद् भीमसेनं सर्पैश्च विषयुक्तैश्च भोजनैः ।
आचरत् त्वन्मते राजा क्व ते धर्मस्तदा गतः ॥ ५ ॥ 

'जब राजा दुर्योधनने तुम्हारी ही सलाह लेकर भीमसेनको जहर मिलाया हुआ अन्न खिलाया और उन्हें सर्पोंसे डँसवाया, उस समय तुम्हारा धर्म कहाँ गया था ? ।।


यद् वारणावते पार्थान् सुप्ताञ्जतुगृहे तदा ।
आदीपयस्त्वं राधेय क्व ते धर्मस्तदा गतः ।। ६ ।।

'राधानन्दन! उन दिनों वारणावतनगरमें लाक्षाभवनके भीतर सोये हुए कुन्तीकुमारोंको जब तुमने जलानेका प्रयत्न कराया था, उस समय तुम्हारा धर्म कहाँ गया था? ।। ६ ॥


यदा रजस्वलां कृष्णां दुःशासनवशे स्थिताम् ।
सभायां प्राहसः कर्ण क्व ते धर्मस्तदा गतः ।। ७ ।।

'कर्ण! भरी सभामें दुःशासनके वशमें पड़ी हुई रजस्वला द्रौपदीको लक्ष्य करके जब तुमने उपहास किया था, तब तुम्हारा धर्म कहाँ चला गया था? ।। ७ ।।


यदनायैः पुरा कृष्णां क्लिश्यमानामनागसम् ।
उपप्रेक्षसि राधेय क्व ते धर्मस्तदा गतः ॥ ८ ॥

'राधानन्दन ! पहले नीच कौरवोंद्वारा क्लेश पाती हुई निरपराध द्रौपदीको जब तुम निकटसे देख रहे थे, उस समय तुम्हारा धर्म कहाँ गया था? ।। ८ ।।


विनष्टाः पाण्डवाः कृष्णे शाश्वतं नरकं गताः ।
पतिमन्यं वृणीष्वेति वदंस्त्वं गजगामिनीम् ।।९ ॥
उपप्रेक्षसि राधेय क्व ते धर्मस्तदा गतः ।

' (याद है न, तुमने द्रौपदीसे कहा था) 'कृष्णे! पाण्डव नष्ट हो गये, सदाके लिये नरकमें पड़ गये। अब तू किसी दूसरे पतिका वरण कर ले। जब तुम ऐसी बात कहते हुए गजगामिनी द्रौपदीको निकटसे आँखें फाड़-फाड़कर देख रहे थे, उस समय तुम्हारा धर्म कहाँ चला गया था? ।। ९॥


राज्यलुब्धः पुनः कर्ण समाव्यथसि पाण्डवान् ।
यदा शकुनिमाश्रित्य क्व ते धर्मस्तदा गतः || १० |

'कर्ण! फिर राज्यके लोभमें पड़कर तुमने शकुनिकी सलाहके अनुसार जब पाण्डवोंको दुबारा जूएके लिये बुलवाया, उस समय तुम्हारा धर्म कहाँ चला गया था? ।।


यदाभिमन्युं बहवो युद्धे जघ्नुर्महारथाः ।
परिवार्य रणे बालं क्व ते धर्मस्तदा गतः ।। ११ ।।

'जब युद्धमें तुम बहुत से महारथियोंने मिलकर बालक अभिमन्युको चारों ओरसे घेरकर मार डाला था, उस समय तुम्हारा धर्म कहाँ चला गया था? ।। ११ ।।


यद्येष धर्मस्तत्र न विद्यते हि किं सर्वथा तालुविशोषणेन ।
अद्येह धर्म्याणि विधत्स्व सूत
तथापि जीवन्न विमोक्ष्यसे हि ।। १२ ।।

'यदि उन अवसरोंपर यह धर्म नहीं था तो आज भी यहाँ सर्वथा धर्मकी दुहाई देकर तालु सुखानेसे क्या लाभ? सूत! अब यहाँ धर्मके कितने ही कार्य क्यों न कर डालो, तथापि जीते-जी तुम्हारा छुटकारा नहीं हो सकता ।। १२ ।।